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Tuesday, March 27, 2012

SOCH

किनारा जो नजर नहीं आता
शहर के पानी झरने* लगते हैं
खुद की जो खबर न रहती है 
खुद मे ही जब खो जाते हैं
ये भी जीना क्या जीना है
जो रातों की न खबर रहती है
कुछ आवारा सा फिरते हैं
दिन यूँ ही कट जाता है
हम शब्द कहाँ ढूंड पाते  हैं
बेघर परिंदों की तरह इक घोसला बस बुन पाते  हैं
बातों से तुम्हे जो याद करते हैं
बातों बातों मे खो जाते हैं
छाव से भरी ठण्ड हवा है
खुला छत कितना गर्म है
(*झरने -पानी का झरना )